Harivansh Rai Bachchan was an Indian poet and writer, best known for his work in Hindi literature. He is considered one of the greatest writers of modern Hindi literature. His literary output includes poetry, politics, criticism, philosophy, autobiography, biography and fiction.
Harivansh Rai Bachchan Poem 1 – कोशिश करने वालों की
कोशिश करने वालों की लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है। मन का विश्वास रगों में साहस भरता है, चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है। आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है, जा जाकर खाली हाथ लौटकर आता है। मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में, बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में। मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। असफलता एक चुनौती है,इसे स्वीकार करो, क्या कमी रह गयी,देखो और सुधार करो। जब तक न सफल हो,नींद चैन को त्यागो तुम, संघर्ष मैदान छोड़कर मत भागो तुम। कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
Harivansh Rai Bachchan Poem 2 – जो बीत गयी सो बीत गयी
जो बीत गयी सो बीत गयी जीवन में एक सितारा था मन वह बेहद प्यारा था वह डूब गया तो डूब गया अम्बर के आनन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोक मनाता है जो बीत गयी सो बात गयी
Harivansh Rai Bachchan Poem 3 – कोई पार नदी के गाता
कोई पार नदी के गाता भंग निशा की नीरवता कर, इस देहाती गाने का स्वर, ककड़ी के खेतो से उठकर, आता जमुना पर लहराता कोई पार नदी के गाता। होंगे भाई-बंधु निकट ही, कभी सोचते होंगे यह भी, इस तट पर भी बैठा कोई उसकी तानों से सुख पाता कोई पार नदी के गाता। आज न जाने क्यों होता मन सुनकर यह एकाकी गायन, सदा इसे में इसे सुनते रहता, सदा इसे यह गाता जाता कोई पार नदी के आता ।
Harivansh Rai Bachchan Poem 4 – अग्निपथ
अग्निपथ वृक्ष हो भले खड़े, हो घने हो बड़े, एक पत्र छाँह भी, मांग मत, मांग मत, मांग मत, अग्निपथ ,अग्निपथ ,अग्निपथ तू न थकेगा कभी, तू न रुकेगा कभी, तू न मुड़ेगा कभी, कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ, अग्निपथ ,अग्निपथ ,अग्निपथ यह महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है, अश्रु श्वेद रक्त से, लथपथ, लथपथ, लथपथ अग्निपथ ,अग्निपथ ,अग्निपथ
Harivansh Rai Bachchan Poem 5 – क्या है मेरी बारी में
क्या है मेरी बारी में जिसे सींचना था मधुजल से सींचा खरे पानी से, नहीं उपजता कुछ भी ऐसी विधि से जीवन-क्यारी में। आंसू-जल से सींच-सींचकर बेलि विवश हो बोता हूँ, स्त्रष्टा का अर्थ छिपा है मेरी इस लाचारी में। टूटे पड़े माघशृतु कल ही तो क्या मेरा है, जीवन बीत गया सब मेरा जीने की तैयारी में क्या है मेरी बारी में।
Harivansh Rai Bachchan Poem 6 – लो दिन बीता लो रात गई
लो दिन बीता लो रात गई सूरज ढल रहा पश्चिम पहुंचा, डूबा,संध्या आई,छाई, सौ संध्या सी वह संध्या थी, क्यों उठते-उठते सोचा था दिन में होगी कुछ बात नई लो दिन बीता, लो रात गई धीमे-धीमे तारे निकले, धीरे-धीरे नभ में फैले, सौ रजनी सी वह रजनी थी, क्यों संध्या को यह सोचा था, निशि में होगी कुछ बात नई लो दिन बीता,लो रात गई चिड़ियाँ चहकी, कलियाँ महकी , पूरब से फिर सूरज निकला, जैसे होती थी,सुबह हुई, क्यों सोते-सोते सोचा था, होगी प्रातः कुछ बात नई, लो दिन बीता,लो रात गई
Harivansh Rai Bachchan Poem 7 – क्षण भर को क्यों प्यार किया था
क्षण भर को क्यों प्यार किया था? अर्ध रात्रि में सहसा उठकर, पलक संपुटों में मदिरा भर तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था? क्षण भर को क्यों प्यार किया था? “यह अधिकार कहाँ से लाया?” और न कुछ मै कहने पाया- मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था। क्षण भर को क्यों प्यार किया था? यह क्षण अमर हुआ जीवन में, आज राग जो उठता मन में, यह प्रतिद्वंद्वी उसकी जो उर में तुमने भर उद्दार दिया थ क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
Harivansh Rai Bachchan Poem 8 – ऐसे में मन बहलाता हूँ
ऐसे में मन बहलाता हूँ सोचा करता बैठ अकेले, गत जीवन के सुख-दुःख झेले, दंशनकारी सुधियों से मई उर के छाले सहलाता हूँ, ऐसे में मन बहलाता हूँ। नहीं खोजने जाता मरहम, होकर अपने प्रति अति निर्मम, उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ, ऐसे में मन बहलाता हूँ। आह निकल मुख से जाती है, मानव की ही तो छाती है, लाज नहीं मुझको डिवॉन में यदि दुर्बल कहलाता हूँ, ऐसे में मन बहलाता हूँ।
Harivansh Rai Bachchan Poem 9 – आत्म परिचय
आत्म परिचय मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ, फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ, कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर , मैं सांसों के दो तार लिए फिरता हूँ। मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ, मैं कभी न जग का ध्यान करता हूँ, जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते, मैं अपने मन का गान किया करता हूँ। मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ मैं निज के उपहार लिए फिरता हूँ, है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ। मैं जला हृदय में अग्नि,दहा करता हूँ, सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ, जग सागर तैरने को नाव बनाये, मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ। मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ, उन्मादो में अवसाद लिए फिरता हूँ, जो मुझको बहार हंसा, रुलाती भीतर, मैं, हाय,किसी को याद लिए फिरता हूँ। कर यातना मिटे सब, सत्य किसी ने जाना? नादान वहीं है,हाय, जहाँ पर दाना! फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी न सीखे, मैं सीख रहा हु, सीखा ज्ञान भूलना। मैं और,और जग ,कहाँ का नाता, मैं बना-बना कितने जग रोज मिटाता, जग किस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव, मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता। मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ, शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ, हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर, मैं उस खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ। मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना, मैं फुट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना, क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाएं, मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना। मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ, मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ, जिसको सुनकर जग झूम ,झुके,लहराए, मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ।
Harivansh Rai Bachchan Poem 10 – मैं कल रात नहीं रोया था
मैं कल रात नहीं रोया था दुःख सब जीवन के विस्मृत कर, तेरे वक्षस्थल पर सर धर, तेरी गोदी में चिड़िया के बच्चे-सा छिपकर सोया था, मैं कल रात नहीं रोया था प्यार-भरे उपवन में घूमा, फल खाये,फूलों को चूमा, कल दुर्दिन का भार न अपने पंखो पर मैंने धोया था। मैं कल रात नहीं रोया था आंसू के दाने बरसाकर किन आँखों ने तेरे उर पर ऐसे सपनों के मधुबन का मधुमय बीज,बता,बोया था? मैं कल रात नहीं रोया था
Harivansh Rai Bachchan Poem 11 – त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन
त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन जब रजनी के सूने क्षण में, तन-मन के एकाकीपन में कवि अपनी विव्हल वाणी से अपना व्याकुल मन बहलाता, त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन। जब उर की पीड़ी से रोकर, फिर कुछ सोच समझ चुप होकर विरही अपने ही हाथों से अपने आंसू पांच हटाता, त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन। पंथी चलते-चलते थक कर, बैठे किसी पथ के पत्थर पर जब अपने ही थकित करों से अपना विथकित पाँव दबाता, त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन।
Harivansh Rai Bachchan Poem 12 – इतना मत उन्मत्त बनो
इतना मत उन्मत्त बनो इतना मत उन्मत्त बनो, जीवन मधुशाला से मधु पी बनकर तन-मन-मतवाला, गीत सुनाने लगा झूमकर चूम-चूम कर मैं प्याला- शीश हिलाकर दुनिया बोली, पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह, इतना मत उन्मत्त बनो। इतने मत संतप्त बनो, जीवन मरघट पर अपने सब। अरमानो की कर होली, चला राह में रोदन करता। चिता -राख से भर झोली- शीश हिलाकर दुनिया बोली, पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह, इतना मत उन्मत्त बनो। मेरे प्रति अन्याय हुआ है, ज्ञात हुआ मुझको जिस क्षण, करने लगा अग्नि-आनन हो गुरु-गर्जन,गुरुतर गर्जन शीश हिलाकर दुनिया बोली, पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह, इतना मत उन्मत्त बनो।
Harivansh Rai Bachchan Poem 13 – स्वप्न था मेरे भयंकर
स्वप्न था मेरे भयंकर रात का- सा था अँधेरा, बादलों का था न डेरा, किन्तु फिर भी न चंद्र-तारों से हुआ था हीन अम्बर, स्वप्न था मेरे भयंकर क्षीण सरिता बह रही थी, कूल से यह कह रही थी, शीघ्र ही मैं सूखने को,भेंट ले मुझको ह्रदय भर, स्वप्न था मेरे भयंकर। घर से कुछ फांसले पर, सर कफ़न की ओढ़े चादर, एक मुर्दा गए रहा था बैठकर जलती चिता पर, स्वप्न था मेरे भयंकर।
Harivansh Rai Bachchan Poem 14 – तुम तूफ़ान समझ पाओगे
तुम तूफ़ान समझ पाओगे गीले बादल,पीले रजकण सूखे पत्ते,रूखे तृण घन लेकर चलता करता “हरहर”-इसका गान समझ पाओगे? तुम तूफ़ान समझ पाओगे? गंध-भरा यह मंद पवन था, लहराता इससे मधुवन था, सहसा इसका टूट गया जो स्वप्न महान,समझ पाओगे? तुम तूफ़ान समझ पाओगे? तोड़-मरोड़ विटप-लतिकायें, नोच-खसोट कुसुम-कलिकाएं, जाता है अज्ञात दिशा को, हटा विहंगम,उड़ जाओगे। तुम तूफ़ान समझ पाओगे?
Harivansh Rai Bachchan Poem 15 – साथी, सांझ लगी अब होने
साथी, सांझ लगी अब होने फैलाया था जिन्हें गगन में, विस्तृत वसुधा के कण-कण में, उन किरणों के अस्ताचल पर पहुंच लगा है सूर्य सजाने साथी, सांझ लगी अब होने। खेल रही थी धूलि कणो में, लूट लिपट गृह तरुण चरणों में, वह छाया, देखो जाती है प्राची मैं अपने को खोने, साथी, सांझ लगी अब होने। मिट्टी से था जिन्हें बनाया, फूलों से था जिन्हें सजाया, खेल-घरौंदे छोड़ पदों पर चले गए हैं बच्चे सोने, साथी, सांझ लगी अब होने।
Harivansh Rai Bachchan Poem 16 – गीत मेरे
गीत मेरे गीत मेरे, देहरी का दीप सा बन। एक दुनिया में हृदय में, मानता हूं, वह घिरी दम से, इसे भी जानता हूं, छा रहा है किंतु बाहर भी तिमिर-घन, गीत मेरे, देहरी का दीप सा बन। प्राण की लौ से तुझे जिस काल बारु, और अपने कंठ पर तुझको संवारु, कह उठे संसार, आया ज्योति का क्षण, गीत मेरे, देहरी का दीप सा बन। दूर कर मुझसे भरी तू कालिमा जब, फैल जाए विश्व में भी लालिमा तब, जानता सीमा नहीं है अग्नि का कण, गीत मेरे, देहरी का दीप सा बन। जग विभामय न तो काली रात मेरी, मैं विभामय तो नहीं जगती अँधेरी, यह रहे विश्वास मेरा यह रहे प्राण गीत मेरे, देहरी का दीप सा बन।
Harivansh Rai Bachchan Poem 17 – लहर सागर का श्रृंगार नहीं
लहर सागर का श्रृंगार नहीं लहर सागर का नहीं श्रृंगार उसकी विकलता है, अनिल अंबर का नहीं खिलवार उसकी विकलता है। विविध रूपों में हुआ साकार, रंगों में सुरंजित, मृतिका का यह नहीं संसार, उसकी विकलता है। गंध कलिका का नहीं उदगार, उसकी विकलता है। फूल मधुवन का नहीं गलहार, उसकी विकलता है। कोकिला का कौन सा व्यवहार, ऋतुपति को न भाया? कूक कोयल की नहीं मुंहार, उसकी विकलता है। गान गायक का नहीं व्यापार, उसकी विकलता है। राग वीणा की नहीं झंकार, उसकी विकलता है। भावनाओं का मधुर आधार साँसों से विनिर्मित, गीत कवी-उर का नहीं उपहार, उसकी विकलता है।
Harivansh Rai Bachchan Poem 18 – आ रही रवि की सवारी
आ रही रवि की सवारी नव-किरण का रथ सजा है, काली-कुसुम का रथ सजा है, बादलों से अनुचरों ने स्वर्ग की पोशाक धारी। आ रही रवि की सवारी। विहग,बंदी और चारण, गए रही है कीर्ति गायन, छोड़कर मैदान भागी,तारकों की फ़ौज सारी। आ रही रवि की सवारी। चाहता, उछलूँ विजय कह, पर ठिठकता देखकर यह, रात का राजा खड़ा है,राह में बनकर भिखारी। आ रही रवि की सवारी।
Harivansh Rai Bachchan Poem 19 – पतझड़ की शाम
पतझड़ की शाम है यह पतझड़ की शाम, सखे। नीलम-से पल्लव टूट गए, मरकत -से साथी छूट गए, अटके फिर भी दो पीत पात जीवन-डाली को थाम,सखे। है यह पतझड़ की शाम, सखे। लुक-छिप करके गाने वाली, मानव से शरमाने वाली कू-कू कर कोयल माँग रही, नूतन घूंघट अविराम सखे। है यह पतझड़ की शाम, सखे। नंगी डालों पर नीड़ सघन, नीड़ों में कुछ-कुछ कंपन, मत देख, नज़र लग जाएगी, यह चिड़ियों के सुखघाम,सखे। है यह पतझड़ की शाम, सखे।
Harivansh Rai Bachchan Poem 20 – राष्ट्रीय ध्वज
राष्ट्रीय ध्वज नगाधिराज शृंग पर कड़ी हुई, समुद्र की तरंग पर अदि हुई, स्वदेश में जगह-जगह गड़ी हुई, अटल ध्वजा हरी,सफ़ेद केसरी। न साम-दाम के समक्ष यह रुकी, न द्वंद्व -भेद के समक्ष यह झुकी, सगर्व आस शत्रु-शीश पर ठुकी, निडर ध्वजा हरी,सफ़ेद केसरी। चलो उसे सलाम आज सब करें, चलो उसे प्रणाम आज सब करें, अजर सदा इसे लिए हुए जिए, अमर सदा इसे लिए हुए मरें , अटल ध्वजा हरी,सफ़ेद केसरी।